बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 42)

बिल्लेसुर को कुछ विश्वास हुआ। लेकिन रुपये की सोचकर कटे।


 लड़की के रूप का मोह भी घेरे था, सैकड़ों कलियाँ चटक रही थीं,

 खुशबू उड़ रही थी, पर त्रिलोचन पर पूरा-पूरा विश्वास न हो रहा था। पूछा, "यहाँ से कितनी दूर है?"

"तीन-चार कोस होगा।"

बिल्लेसुर ने सोचा, एक दिन में चले चलेंगे और लौट भी आयेंगे। बकरियों को बड़ी तकलीफ़ न होगी। 

पत्ते काटकर डाल जायेंगे। बोले, "तो चले चलो भय्या, देख लेना चाहिये, जिस दिन कहो तैयारी कर दी जाय।"

त्रिलोचन ने मतलब गाँठकर कहा, "अच्छा आज के चौथे दिन चलेंगे।"

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बिल्लेसुर को उस रात नींद न आई। वही रूप देखते रहे। बहुत गोरी है सोचते रामरतन की स्त्री की याद आई। 

सोलह साल की है सोचा तो रामचरन सुकुल की बिटिया की सूरत सामने आ गई। 

बड़ी-बड़ी आँखें होंगी, जैसी पुखराजबाई की लड़की हसीना की हैं। 

इस घर में आयेगी तो घर में उजाला छाया रहेगा। जिस कोठरी में बच्चे रक्खे जाते हैं, उसमें उसका सामान रहेगा। 

बच्चे दहलीज में रहेंगे। एक छप्पर डाल लेंगे, सब ऋतुओं के लिए आराम रहेगा।

एक दफ़ा भी बिल्लेसुर ने नहीं सोचा कि बकरी की लेंड़ियों की बदबू से ऐसी औरत एक दिन भी उस मकान में रह सकेगी।

सबेरे उठकर पड़ोस के एक गाँव में बज़ाज़ के यहाँ गये और कुर्त्ते का कपड़ा लिया, साफ़ा खरीदा गुलाबी रंग का, धोती एक ली। 

दरजी को कुर्ते की नाप दी। उसी दिन बना दने के लिए कहा। गाँव के चमार से जूते का जोड़ा खरीदा।

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